दिखाती जो हे जिंदगी, देखती ये चुप-चाप,
कभी एक रौशनी , कभी एक ज़लज़ला,
जेसे तो कभी कहीं उमड़ा एक सराब ..
कुछ ना बोले , पर सब कुछ समझती,
कभी ये ठगती , तो कभी कातिल अदा से जान भी ये लेती जिंदगी,
जताओ सी उलझी , माँ सी सुलझी,
फिर भी ना जाने क्या हे ये कहती..
खुद ही के अक्स को ये देखती,
खुदही पे हे हस्ती, तो कभी खुदही से उदास,
बिखरते पत्तों सी ये ,
कभी न थमती , न रूकती,
न जाने किसे ये रहती हे धुन्दती ,
कभी दूर तो कभी पास...
-- मवेरिक्क
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