क्यों उन बदनाम गलियों की
चीखें सुनाई नहीं देती,
क्यों उन जंजीरों की बंदिश
दिखयी नहीं देती ,
कोई ढूँढता है खुशी वाहन,
कोई ढूँढता लालसा,
पल्लू पकडे है खड़ी एक सहेमी
सी नज़र,
ठंडी साँसों से हें पूछती
बता मेरा नाम हें क्या |
अमीरों की टोली में है
चर्चे हज़ार उनके,
जिल्लत और बेबसी, है घनिष्ठ
मित्र उनके,
यूं तो जातें हैं सभी कहने
को मर्द वाहन,
क्या हकिकत में नहीं कोई
मर्द यहाँ?
शायद मर्दानगी से इज्ज़त कहीं
ऊपर होती है,
तभी मेरी गुडिया, आँखों में
अनसु लिए सोती है !
एसी इज्ज़त के धकोंसले भी
क्या कामके,
जो किसी और की इज्ज़त ना कर
सके,
हाँ शायद लिखता हू में आवारा,
शायद सोच भी हें मेरी आवारा,
लेकिन उन रूहों का क्या जो
इस आवारा जिंदगी के बोझ तले आज़ादी हें मांगती?
सुन्दर शरीर की होड में ,
रूह कही पीछे छूट गयी ,
बना दिया उनको सिर्फ एक
शापित शब् |
अब स्त्रैण कत्पुत्लो की महफ़िल में
उछलेंगे मर्दानगी के मुद्दे,
फिर होंगी बैठके निर्लाजो
की समाज की व्याख्या पर,
अब ये सिखाएंगे हमे
संस्कृति, जो खुद स्त्री की इज्ज़त करना नहीं जानते !
अच्छा हुवा इश्वर चले गए
यहाँ से,
धरा की एसी हालत देख के वो
भी रोये होते |
उन्हें भी तो चाहिए प्रेम,
सन्मान, एक अपनापन,
लेकिन ये हवास के पुतले
क्या जाने, की औरत आखिर क्या होती है !
क्यों उन बदनाम गलियों की चीखें सुनाई नहीं देती,
क्यों उन जंजीरों की बंदिश
दिखयी नहीं देती...